Sunday, October 23, 2011

Un-done

रेत के घरोंदे
फिसलते बंद मुट्ठी से
धीमी आंच पे
जलती ख्वाहिशें 
बेपरवाह-ए-अंजाम
चंद मंसूबे
खुरचन से ख्वाब
सीलन पड़ी दीवारों से
उड़ते रंग, चड़ते साल
बनते बिगड़ते हर काम
इस साल की 
अधपकी फसलों के नाम....

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