एक शाम यूँ हीं
उस आईने में
धुंधली तस्वीर सी बनती है
सहमी सी, ठहरी सी
खुद के सवालों में
उलझी सी
एक आह छुपी
झिझकी सिरहन में
चाह छुपी
वो सूर्ख़ राख़ सी दहकती है
कल जाने क्या होना है
क्यों जाने क्या खोना है
अपनी तलाश में
ग़ुम खोयी
वो कस्तूरी सी लगती है
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